हरितालिका तीज का व्रत सिर्फ भूखे-प्यासे रहने का नाम नहीं है,यह एक कहानी है... एक राजकुमारी के हठ की,एक सखी की हिम्मत की,और एक ऐसे प्रेम की,जिसने देवताओं को भी झुकने पर मजबूर कर दिया। यह व्रत जितना कठिन है,उतनी ही खूबसूरत और प्रेरणा देने वाली इसकी कथा है। पूजा की थाली सजाने से पहले,आइए उस कहानी को जीते हैं,जिसके बिना यह व्रत अधूरा है।क्या है'हरितालिका'का मतलब?यह नाम दो शब्दों से मिलकर बना है -हरित (जिसका अर्थ है हरण करना या चुरा लेना) औरतालिका (जिसका अर्थ है सखी)। यानी, "सखियों द्वारा हरण कर लिया जाना।" यह नाम ही इस व्रत की पूरी कहानी बयां कर देता है।व्रत की पूरी कथा: दिल से सुनें और महसूस करेंयह कहानी है पर्वतराज हिमालय की बेटी,राजकुमारी पार्वती की। बचपन से ही पार्वती मन ही मन भगवान शिव को अपना पति मान चुकी थीं और उन्हें पाने के लिए कठोर तपस्या करती थीं। दिन बीतते गए,पार्वती बड़ी हो गईं। अब उनके पिता,पर्वतराज हिमालय को उनकी शादी की चिंता सताने लगी।एक दिन,देवर्षि नारद खुद भगवान विष्णु की तरफ से पार्वती का हाथ मांगने के लिए पर्वतराज के पास पहुंच गए। पर्वतराज तो यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि उनकी बेटी का विवाह सृष्टि के पालनहार,भगवान विष्णु से होगा। उन्होंने खुशी-खुशी यह रिश्ता स्वीकार कर लिया।जब पार्वती को यह पता चला,तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। उनका दिल टूट गया। उन्होंने तो अपना सर्वस्व भगवान शिव को मान लिया था,वे किसी और से विवाह का सोच भी कैसे सकती थीं?रोते हुए,वे अपनी सबसे प्रिय सखी के पास गईं और उन्हें अपने मन की सारी व्यथा बताई। उन्होंने अपनी सखी से कहा कि अगर उनका विवाह शिवजी से नहीं हुआ,तो वे अपने प्राण त्याग देंगी।पार्वती का यह दुःख उनकी सखी से देखा नहीं गया। उन्होंने एक बहुत बड़ा और साहसी फैसला लिया। वे चुपचाप,रात के अंधेरे में राजकुमारी पार्वती को महल से "हरण" करके एक घने जंगल में ले गईं,ताकि उनके पिता उनका विवाह जबरदस्ती विष्णु जी से न करा सकें।जंगल में पहुंचकर पार्वती ने एक गुफा में रेत और मिट्टी से शिवलिंग का निर्माण किया और एक बार फिर अपनी कठोर तपस्या में लीन हो गईं। उन्होंने अन्न-जल,फल-फूल सब कुछ त्याग दिया। उनकी इस तपस्या से तीनों लोक कांप उठे। आखिरकार,उनकी लगन और सच्चे प्रेम को देखकर भोलेनाथ का आसन डोल गया। भगवान शिव खुद उनके सामने प्रकट हुए और उनकी मनोकामना पूछते हुए उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का वरदान दिया।जिस दिन पार्वती की यह तपस्या सफल हुई,वहभाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथिथी। अपनी सखियों की मदद से ही पार्वती अपने प्रेम को पा सकी थीं,इसीलिए इस व्रत का नाम "हरितालिका तीज" पड़ गया।कैसे करें इस व्रत की पूजा? (सरल विधि)इस कथा को सुनने के बाद पूजा का महत्व और भी बढ़ जाता है।निर्जला व्रत का संकल्प:यह व्रत निर्जला रखा जाता है। सुबह सूर्योदय से पहले स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनें और मन में व्रत का संकल्प लें।मूर्ति निर्माण:प्रदोष काल (शाम) में पूजा के लिए,गीली काली मिट्टी या बालू से भगवान गणेश,शिवजी और माता पार्वती की प्रतिमाएं बनाएं।पूजा की शुरुआत:सबसे पहले भगवान गणेश की पूजा करें। उन्हें दूर्वा और मोदक अर्पित करें।शिव-पार्वती का पूजन:इसके बाद भगवान शिव को बेलपत्र,भांग,धतूरा और सफेद वस्त्र अर्पित करें। फिर माता पार्वती का सोलह श्रृंगार करें। उन्हें सुहाग की सभी वस्तुएं - चुनरी,चूड़ियां,बिंदी,सिंदूर,महावर,मेहंदी आदि - एक-एक करके चढ़ाएं।कथा का श्रवण:अब परिवार की सभी महिलाओं के साथ बैठकर हरितालिका तीज की इस पावन कथा को सुनें या पढ़ें।आरती और जागरण:पूजा के अंत में कपूर से आरती करें। इस व्रत में रात भर जागकर भजन-कीर्तन करने (रात्रि जागरण) का विधान है।पारण:अगले दिन सुबह स्नान-पूजा करने के बाद ही जल ग्रहण करके व्रत का पारण करें।यह व्रत सिखाता है कि अगर इरादे नेक और प्रेम सच्चा हो,तो भगवान भी आपकी मदद के लिए दौड़े चले आते हैं।
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