नई दिल्ली, 20 अप्रैल . भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने रविवार को असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के एक पोस्ट को रीशेयर किया है. उन्होंने शायराना अंदाज में अपनी बात रखते हुए कहा कि जिंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं.
दरअसल, भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की सुप्रीम कोर्ट पर की गई टिप्पणी से भाजपा के किनारा करने के बाद असम के हिमंत बिस्वा सरमा ने एक पोस्ट शेयर किया था. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों का जिक्र कर कांग्रेस पर सवाल उठाए थे. उन्होंने लिखा था कि कांग्रेस तब न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है, जब फैसले उनके राजनीतिक हितों के खिलाफ जाते हैं.
इस पोस्ट के री शेयर करते हुए भाजपा सांसद ने एक्स पर लिखा, “जिंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं. हाय, इस कैद को जेल व जंजीर भी दरकार नहीं.”
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक्स पर पोस्ट शेयर करते हुए लिखा था, “भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और गरिमा को भारत के लोकतंत्र की आधारशिला के रूप में हमेशा बरकरार रखा है. हाल ही में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सांसद निशिकांत दुबे द्वारा सुप्रीम कोर्ट के संबंध में की गई टिप्पणियों से पार्टी को अलग करके इस प्रतिबद्धता की पुष्टि की है.”
उन्होंने आगे लिखा, “नड्डा ने इस बात पर जोर दिया कि ये व्यक्तिगत राय हैं और पार्टी के रुख को नहीं दर्शाती हैं. उन्होंने न्यायिक संस्थाओं के प्रति भाजपा के गहरे सम्मान को दोहराया. भाजपा इस सैद्धांतिक स्थिति को बनाए रखती है, लेकिन न्यायपालिका के साथ कांग्रेस पार्टी के ऐतिहासिक संबंधों की जांच करना उचित है. कांग्रेस ने कई मौकों पर न्यायपालिका के सम्मानित सदस्यों की सार्वजनिक रूप से आलोचना की है.”
सीएम सरमा ने कुछ जजों का जिक्र करते हुए एक्स पर लिखा, “जस्टिस दीपक मिश्रा: कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने बिना ठोस सबूतों के उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया. जस्टिस रंजन गोगोई: अयोध्या मामले में फैसले समेत कई ऐतिहासिक फैसलों के बाद कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा. जस्टिस एस. अब्दुल नजीर: रिटायरमेंट के बाद आंध्र प्रदेश के गवर्नर बनाए जाने पर कांग्रेस ने उनकी आलोचना की, जिसमें आरोप लगाया गया कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा है, जबकि अतीत में भी इसी तरह की नियुक्तियां हुई हैं.”
उन्होंने कहा, “यह पैटर्न दर्शाता है कि कांग्रेस अक्सर तब न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है, जब फैसले उनके राजनीतिक हितों के खिलाफ जाते हैं. ऐसी चुनिंदा आलोचना न केवल न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता को कम करती है, बल्कि लोकतांत्रिक चर्चा के लिए भी चिंताजनक मिसाल भी स्थापित करती है. सभी राजनीतिक दलों के लिए जरूरी है कि वे न्यायिक फैसलों के प्रति एकरूपता और ईमानदारी बरतें. न्यायपालिका का सम्मान फैसलों के अनुकूल होने पर निर्भर नहीं होना चाहिए. चुनिंदा प्रशंसा से जनता का भरोसा और लोकतंत्र के मूल सिद्धांत कमजोर होते हैं.”
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एफएम/
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