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मजरूह सुल्तानपुरी जिन्हें नेहरू के ख़िलाफ़ नज़्म लिखने के लिए हुई थी जेल

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Credit Blue Pencil मजरूह सुल्तानपुरी हकीम बनना चाहते थे

अपनी शायरी के लिए मजरूह सुल्तानपुरी कहा करते थे, "ये काम हम किसी तरह निभा तो ले गए. लेकिन ये बात ज़रूर है कि न तो हम पूरी तरह शायर बन सके न पूरी तरह गीतकार."

कमर्शियल फ़िल्मों में लेखन को लेकर उनके मन में किसी तरह की शर्म नहीं थी, फिर भी उन्होंने ख़ुद को मिली फ़िल्मी ट्रॉफ़ीज़ के साथ कभी तस्वीर नहीं खिंचवाई. वो कहते थे, "मैं फ़िल्मी आदमी नहीं हूं."

1 अक्तूबर, 1919 को जन्मे मजरूह सुल्तानपुरी का पूरा नाम असरार उल हसन ख़ाँ था. उनके पिता मोहम्मद हुसैन पुलिस में सिपाही थे. आज यानी 24 मई को मजरूह सुल्तानपुरी की 25वीं पुण्यतिथि है.

उनकी शुरुआती शिक्षा अरबी, फ़ारसी और उर्दू में हुई थी. साल1933 में वो मौलवी, आलिम और फ़ाज़िल की पढ़ाई करने इलाहाबाद गए लेकिन वहाँ से उन्हें निकाल दिया गया. उसके बाद उन्होंने हकीम बनने की ठानी.

तीन सालों तक उन्होंने लखनऊ में यूनानी दवाओं की पढ़ाई की. फिर उन्होंने वहां पर एक क्लीनिक भी खोला, लेकिन वो कुछ महीनों ही चला क्योंकि उनके भाग्य में तो शायर बनना लिखा था.

जिगर मुरादाबादी ने बनाया शागिर्द image BBC जिगर मुरादाबादी ने मजरूह को अलीगढ़ में शायरी वातावरण से रूबरू कराया

उस ज़माने में लखनऊ अध्ययन और संस्कृति का केंद्र हुआ करता था. मजरूह ने मुशायरों में जाना शुरू कर दिया और वहां से प्रेरित होकर लिखना भी शुरू कर दिया.

पहली बार जब उन्होंने मंच पर अपनी रचना पढ़ी तो उन्हें बहुत वाहवाही मिली.

उर्दू के मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपना शागिर्द बना लिया.

मानेक प्रेमचंद अपनी किताब 'मजरूह सुल्तानपुरी द पोएट फॉर ऑल रीज़न्स' में लिखते हैं, "साल 1939 में जिगर मजरूह को अपने साथ लेकर अलीगढ़ गए जहां उन्होंने युवा शायर को शहर के शायराना वातावरण से रूबरू करवाया. साल 1945 में वो प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन (पीडब्ल्यूए) के सदस्य बन गए."

कुलदीप कुमार ने 'द हिंदू' के 20 फ़रवरी, 2020 में छपे अपने लेख 'मजरूह सुल्तानपुरी द वूंडेड हार्ट' में लिखा, "असरार उल हसन ने बहुत कम उम्र में शायरी शुरू कर दी थी. उस समय वो 'नासेह' के नाम से शायरी करते थे. फिर वो एक लड़की के इश्क़ में पड़ गए लेकिन उन्हें उसका प्यार नहीं मिला. उसके बाद उन्होंने अपना नाम 'मजरूह' रख लिया जिसका अर्थ होता है घायल."

मजरूह का लिखा गाना जब दिल ही टूट गया सहगल ने गाया image Blue Pencil Publishers मानेक प्रेमचंद की किताब 'मजरूह सुल्तानपुरी द पोएट फॉर ऑल रीज़न्स'

साल 1944 में कई बड़े शायर जैसे आह सीतापुरी, ज़िया सरहदी और जोश मलीहाबादी बंबई में नाम कमा रहे थे. इसलिए जब अगले साल जिगर ने मजरूह को अपने साथ बंबई चलने को कहा तो वो फ़ौरन राज़ी हो गए.

मजरूह बंबई फ़िल्मों की वजह से नहीं बल्कि वहां होने वाले मुशायरों की वजह से गए थे.

उन्हीं दिनों फ़िल्म निर्माता एआर कारदार और संगीतकार नौशाद नए गीतकारों की तलाश में थे क्योंकि स्थापित हो चुके गीतकारों ने बहुत पैसे मांगने शुरू कर दिए थे.

कारदार और नौशाद ने उन्हें एक मुशायरे में सुना और उनके मुरीद हो गए. उन्होंने अपनी फ़िल्म 'शाहजहाँ' में गीत लिखने के लिए उन्हें आमंत्रित किया.

मजरूह ने पहले तो इनकार किया लेकिन फिर जिगर मुरादाबादी के कहने पर फ़िल्म के लिए गीत लिखने को राज़ी हो गए.

मानेक प्रेमचंद लिखते हैं, "ख़ुमार बाराबंकवी और मजरूह सुल्तानपुरी दोनों को जिगर मुरादाबादी ने न सिर्फ़ ढूंढा था बल्कि उन्हें अपना शागिर्द भी बनाया था. ये दोनों शायर 1945 में मुशायरों में हिस्सा लेने बंबई पहुंचे थे जहां कारदार और नौशाद की नज़र उन पर पड़ी थी और उन्होंने उन दोनों को साइन कर लिया था."

"ख़ुमार ने सहगल के लिए लिखा था, 'ऐ दिल-ए-बेक़रार झूम' जबकि मजरूह ने सहगल के लिए लिखा था, 'जब दिल ही टूट गया.' सहगल ने तो ये इच्छा भी प्रकट की थी कि जब उनका अंतिम संस्कार किया जाए तो 'जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे' बजाया जाए."

मजरूह ने एक साल बिताया जेल में image Hulton-Deutsch Collection/CORBIS/Corbis via Getty Images पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ख़िलाफ़ नज़्म लिखने के बाद मजरूह को एक साल तक जेल में रहना पड़ा था (फ़ाइल तस्वीर)

मजरूह को भारत के भविष्य के बारे में बहुत चिंता रहती थी. उनका मानना था कि देश का नेतृत्व ग़लत हाथों में है.

उन्हीं दिनों उन्होंने एक रचना की थी जिसमें उन्होंने नेहरू की तुलना हिटलर से की थी. उन्होंने लिखा था-

अमन का झंडा इस धरती पे किसने कहा लहराने ना पाए

ये भी कोई हिटलर का है चेला, मार ले साथी, जाने न पाए

कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू, मार ले साथी जाने ना पाए

मानेक प्रेमचंद लिखते हैं, "उन दिनों बंबई में मज़दूरों का आंदोलन चल रहा था. एक मज़दूर रैली में मजरूह ने नेहरू के ख़िलाफ़ ये कविता कही. बंबई सरकार ने उनके ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी किया."

"मजरूह भूमिगत हो गए और पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पाई, इस दौरान मशहूर लेखक राजेंदर सिंह बेदी जिन्होंने बाद में 'दस्तक' और 'फागुन' फ़िल्म बनाई, वो चुपचाप उनके परिवार को पैसे भेजते रहे."

"उन्हीं दिनों राज कपूर ने भी उन्हें एक गाने के 1000 रुपये दिए जबकि उन दिनों चोटी के गीतकार को एक गाने के 500 रुपये मिलते थे. वो गाना था- 'दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई.' बाद में इस गाने के मुखड़े को साल 1966 में शैलेंद्र की फ़िल्म 'तीसरी क़सम' में मुखड़े के तौर पर इस्तेमाल किया गया."

लेकिन जब साल 1951 में कम्युनिस्ट लेखकों सज्जाद ज़हीर और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की रावलपिंडी कॉन्सपिरेसी केस में गिरफ़्तारी के विरोध में प्रोग्रेसिव राइटर्स की एक बैठक हुई तो मजरूह ने उसमें भाग लिया.

उनको मंच पर ही गिरफ़्तार कर लिया गया और एक साल तक बंबई की आर्थर रोड जेल में रखा गया था.

तब बंबई के गृह मंत्री मोरारजी देसाई ने उनसे उस रचना के लिए माफ़ी मांगने के लिए कहा था लेकिन मजरूह ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था.

मजरूह के साथ मशहूर अभिनेता बलराज साहनी को भी कम्युनिस्ट पार्टी के जुलूस में हिंसा भड़काने के आरोप में जेल भेजा गया था.

पीडब्ल्यूए की बैठकों में बढ़-चढ़कर हिस्सा image TAJDAR AMROH कमाल अमरोही ने मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी फ़िल्म 'दायरा' में गीत लिखने के लिए साइन किया था

जेल में रहते हुए भी उन्होंने फ़िल्मों के लिए गीत लिखना जारी रखा था.

जैसे ही वो साल 1952 में जेल से बाहर आए कमाल अमरोही ने उन्हें अपनी फ़िल्म 'दायरा' में गीत लिखने के लिए साइन कर लिया.

उस ज़माने में हर रविवार को पीडब्ल्यूए से जुड़े लेखकों की बैठक हुआ करती थी. वहीं मजरूह ने दो पंक्तियां कही थीं जिसने उन्हें पूरे भारत में मशहूर बना दिया था-

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

ग़ैर साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

जब इस पर वहाँ मौजूद लेखकों की राय मांगी गई तो युवा कवि ज़फ़र गोरखपुरी ने अपना हाथ ऊपर उठा दिया. उन्होंने कहा कि मजरूह की लाइनों में 'ग़ैर' शब्द मुनासिब नहीं है. कवि के लिए कोई भी 'ग़ैर' नहीं हो सकता.

वहाँ मौजूद अली सरदार जाफ़री ने कहा कि वो गोरखपुरी के विचारों से सहमत हैं. उन्होंने मजरूह को सलाह दी कि वो 'ग़ैर' की जगह कोई और शब्द इस्तेमाल करें.

तब मजरूह ने 'ग़ैर' शब्द की जगह 'लोग' शब्द का इस्तेमाल किया.

मजरूह की ज़बरदस्त रेंज image BBC

उर्दू साहित्य में मजरूह सुल्तानपुरी को वो स्थान नहीं हासिल हो पाया जिसके कि वो हक़दार थे.

उर्दू के जाने-माने समीक्षक प्रोफ़ेसर वारिस किरमानी अपनी किताब 'कुलह काज का बाँकपन' में लिखते हैं, "यही हाल अंग्रेज़ी साहित्य में सेमुअल जॉन्सन और टॉमस ग्रे का था. उर्दू साहित्य में मजरूह को ऊँचा मक़ाम न मिलने की वजह है उनका साहित्य कम लिखना. फ़िल्मों के लिए उन्होंने बेइंतहा लिखा है, लेकिन फ़िल्मों के बाहर उनकी रचनाओं की संख्या 150 से भी कम है."

जाने माने पत्रकार सुभाष राव 'युग्तेवर' के जनवरी-मार्च 2020 के अंक में लिखते हैं, "साहित्यकार लोग अक्सर फ़िल्मी गीतकारों को गंभीरता से नहीं लेते रहे हैं. मेरा मानना है कि ये सही नहीं है."

"शैलेंद्र, साहिर, शकील बदायूँनी और मजरूह की रचनाएं आम लोगों के दिल में सिर्फ़ इसलिए नहीं बस गई थीं कि वो तुकबंदी करते थे."

अली सरदार जाफ़री लिखते हैं, "आमतौर पर ग़ज़लगो शायर समाजी और सियासी मौज़ूआत के बयान में फीके-शीठे हो जाते हैं या उनका अंदाज़-ए-बयान ऐसा हो जाता है कि नज़्म और ग़ज़ल का फ़र्क बाक़ी नहीं रह जाता. मजरूह के यहाँ ये बात नहीं है."

मजरूह पहले गीतकार थे जिन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

अश्लील और द्विअर्थी गानों से हमेशा दूर रहे मजरूह image Film Heritage Foundation 1948 में राज कपूर ने आग फ़िल्म के साथ निर्देशन की शुरुआत की थी और उसमें गाने मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे थे

मजरूह सुल्तानपुरी ने साल 1948 में राज कपूर की फ़िल्म 'आग' के लिए गाने लिखे थे.

राजीव विजयकर अपनी किताब 'मैं शायर तो नहीं' में लिखते हैं, "एक बार मजरूह नरगिस के साथ 'आग' के सेट पर गए. जब उन्हें राज कपूर से मिलवाया गया तो उन्होंने उनसे एक गाना लिखने की फ़रमाइश की. उन्होंने उसी समय वो गाना लिखा- रात को जी चमके तारे."

60 और 70 के दशक में मजरूह अपने करियर के पीक पर पहुंच गए. इस दौरान उन्होंने आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ओपी नैयर, रोशन और एसडी बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ काम किया.

राजीव विजयकर लिखते हैं, "जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा तब उस समय उनके लिखे गाने वो युवा गा रहे थे जो उनके नाती-पोतों की उम्र के थे. मैं जब जब मजरूह से मिला तो मैं उनकी तहज़ीब से बहुत प्रभावित हुआ था. उनका कहना था कि मैं अपने गानों के साहित्यिक स्वभाव से समझौता करने के लिए भले ही तैयार हूँ लेकिन मैं कभी भी कोई सस्ता, अश्लील और द्विअर्थी गाना नहीं लिखूँगा."

साथी गीतकारों को जवाब image BBC केएल सहगल और मोहम्मद रफ़ी ने साथ गाया इकलौता गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने ही लिखा था

मजरूह ने अपने समकालीन गीतकारों, साथियों और उनके ऊपर उनके पड़े प्रभाव के बारे में बहुत ईमानदारी से बात की है.

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "जब शकील बदायूँनी ने 'चौदहवीं का चाँद' लिखा तो मैं उनसे आगे बढ़ना चाहता था. इसलिए मैंने 'अब क्या मिसाल दूँ मैं तुम्हारे शबाब की' लिखा. जब साहिर ने लिखा, 'चुरा ले ना तुमको ये मौसम सुहाना', मैंने उसकी टक्कर में लिखा- 'इन बहारों में अकेले न फिरो, राह में काली घटा रोक ना ले'.''

मदन मोहन और सचिन देव बर्मन का संगीत उन्हें बेहद पसंद था. उन्हें देवानंद पर फ़िल्माया गाना 'हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले गए' भी बेहद पसंद था. उन्हें इस बात से निराशा तब हुई जब उस गाने को कोई पुरस्कार नहीं मिला.

फ़िल्म जगत के कई गायकों ने अपना पहला गीत मजरूह का गाया था. सुधा मल्होत्रा के फ़िल्मी करियर का पहला गीत 'मिला गए नैन' मजरूह ने लिखा था. उसी तरह संगीतकार के रूप में ऊषा खन्ना की पहली फ़िल्म 'दिल देके देखो' के सारे गीत मजरूह ने ही लिखे थे. मोहम्मद रफ़ी के साथ गाया केएल सहगल का अकेला गीत 'मेरे सपनों की रानी' मजरूह ने ही लिखा था.

सचिन देव बर्मन और मजरूह की जुगलबंदी image khagesh dev burman एसडी बर्मन

सचिन देव बर्मन के साथ मजरूह ने कई फ़िल्में की थीं.

दोनों का जन्म एक ही दिन 1 अक्तूबर को पड़ता था. दोनों पान और शरारती गाने बनाने के शौकीन थे. अंतारा नंदा मंडल अपने लेख 'मिसचिफ़ एंड मेलोडीज़ विद एसडी बर्मन' में लिखती हैं, "कल्पना करिए हीरो पूछ रहा है 'आँचल में क्या जी' और हिरोइन जवाब दे रही है, 'अजब सी हलचल जी' और उन दिनों का कड़ा सेंसर इसे पास भी कर रहा है. इसी तरह का मजरूह-बर्मन जोड़ी का एक गाना राज खोसला ने काला पानी फ़िल्म में फ़िल्माया था- अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना."

ये सिलसिला चलती का नाम गाड़ी में भी चला था जब मजरूह ने 'एक लड़की भीगी भागी सी' लिखा था. इस फ़िल्म में मजरूह ने आम शब्दों का दो-दो बार इस्तेमाल किया था, 'डगमग-डगमग लहकी-लहकी, भूली- भटकी बहकी-बहकी.'

बर्मन मजरूह को 'मुज़रू' कहकर पुकारते थे.

बंगाली फ़िल्मों के स्क्रीनप्ले लेखक नबेंदु घोष ने एक संस्मरण लिखा है, "सचिन दा ने आँखे बंद कर हारमोनियम पर उंगलियाँ फेरते हुए गाना शुरू किया. दादा उर्दू के शब्द 'की' और 'का' कहने में ग़लती कर रहे थे. मजरूह उनको बार-बार ठीक करा रहे थे. बर्मन सही सही गाने लगे थे. तभी उनसे फिर ग़लती हुई. मजरूह ने उन्हें टोका. दादा ने झल्ला कर कहा, 'ओहहह मुज़रू. उर्दू में जेंडर का मसला बार बार क्यों आ जाता है? अगली बार अपने गाने बांग्ला में लिखना.' मजरूह ने ज़ोर का ठहाका लगाया."

कार चलाने के शौक़ीन image BBC

मजरूह को अपनी बेटी सबा से बहुत प्यार था. जब सबा अपने स्कूल से लौटती थीं तो मजरूह उसे देखकर गा उठते थे 'ये कौन आया रौशन हो गई महफ़िल किस के नाम से.'

सबा बताती हैं, "एक लोरी 'नन्ही कली सोने चली' उन्होंने मेरे लिए लिखी थी. मेरी माँ मुझे सुलाने की कोशिश कर रही थीं. दो मिनट में वो लोरी उन्होंने लिख डाली थी."

उनके बेटे अंदलीब सुल्तानपुरी बताते हैं, "अब्बा के पास एक शेवोर्ले कार हुआ करती थी. उन दिनों फ़िल्म गीतकार के लिए कार रखना बड़ी बात समझा जाता था. उनको अपनी कार से घूमने का बहुत शौक था. वो अपनी शेवोर्ले निकालते थे और ड्राइवर को एक तरफ़ बैठा कर खुद चलाते थे.'

80 वर्ष की उम्र में निधन

मजरूह को गोश्त खाने का बहुत शौक था. ख़ासतौर से कीमा, कबाब और कोरमा. लेकिन वो कम खाते थे. जब उन्हें 17 मई, 2000 को लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया तो वो बहुत परेशान हो गए. वो शाकाहारी खाना खाकर तंग आ गए थे.

तीन दिनों बाद जब उन्हें घर जाने की अनुमति दी गई तो उनकी जान में जान आई. उन्होंने अपना पसंदीदा खाना खाया ही था कि अगले दिन उन्हें फिर अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा. 24 मई, 2000 को इस गीतकार ने अंतिम सांस ली.

उर्दू के मशहूर आलोचक गोपीचंद नारंग ने लिखा, "ये दुख की बात है कि मजरूह के जाने के साथ प्रोग्रेसिव मूवमेंट ग़ज़ल का मीर तकी मीर चला गया."

उन्होंने साल 1953 मे बाग़ी फ़िल्म के लिए एक गाना लिखा था जो उन पर पूरी तरह लागू होता था-

हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे

बहारें हमको ढूंढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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