सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को ख़ारिज कर दिया है जिसमें राजनीतिक दलों में काम करने वाली महिलाओं को पॉश क़ानून के तहत सुरक्षा देने की मांग की गई थी.
याचिका में कहा गया था कि राजनीतिक दलों को पॉश क़ानून 2013 के दायरे में लाया जाए.
महिलाओं के कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम को पॉश क़ानून कहा जाता है.
15 सितंबर को हुई सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, "राजनीतिक दलों को 'कार्यस्थल' या 'ऑफ़िस' नहीं माना जा सकता. किसी राजनीतिक दल की सदस्यता लेना और नौकरी करना, दोनों अलग बातें हैं. इस याचिका को स्वीकार करना पैंडोरा बॉक्स खोलने जैसा होगा."
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी, "अगर कोर्ट यह कहता है कि नया कानून बनाने से समस्याएं खड़ी होंगी या कानून का दुरुपयोग होगा, तो ऐसे उदाहरण हर कानून में मिल सकते हैं."
"जिस तरह अन्य पेशों या नौकरियों में महिलाओं को कानून के तहत सुरक्षा मिली हुई है, उसी तरह राजनीति से जुड़ी महिलाओं को भी सुरक्षा मिलनी चाहिए. "
"उन्हें इस क़ानून से बाहर रखने का कोई ठोस कारण नहीं है. इसलिए कोर्ट को राजनीतिक दलों को भी पॉश क़ानून के तहत आंतरिक शिकायत समितियां (आईसीसी) बनाने का निर्देश देना चाहिए."
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद राजनीतिक क्षेत्र की महिलाओं को पॉश क़ानून का संरक्षण नहीं मिलेगा, जिसने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बहस तेज़ कर दी है.
क्या है मामला?
साल 2022 में केरल हाई कोर्ट में दायर एक याचिका में राजनीतिक दलों को पॉश एक्ट के दायरे में लाने की मांग की गई थी.
उस समय हाई कोर्ट ने कहा, "पॉश एक्ट की धारा 2(ओ) के तहत 'कार्यस्थल' की परिभाषा में राजनीतिक दल शामिल नहीं हैं. राजनीतिक कार्यकर्ता 'कर्मचारी' नहीं माने जाते और राजनीतिक दल 'संस्थान' नहीं समझे जाते. इसलिए उन पर आईसीसी बनाने की बाध्यता लागू नहीं होती."
योगमाया एमजी ने केरल हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता शोभा गुप्ता ने याचिकाकर्ता का पक्ष रखा. अब सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाई कोर्ट के फ़ैसले को बरक़रार रखा है.
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान शोभा गुप्ता ने दलील दी, "केरल हाई कोर्ट ने पॉश एक्ट में 'पीड़ित महिला' की विस्तृत परिभाषा को नज़रअंदाज़ किया. इस क़ानून के प्रावधानों के अनुसार, यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराने के लिए महिला का किसी संस्थान में काम करना अनिवार्य नहीं है."
उन्होंने दलील दी, "राजनीतिक दल संगठित ढंग से काम करते हैं और पॉश एक्ट में असंगठित क्षेत्र, जैसे घरेलू काम को भी शामिल किया गया है. इसलिए राजनीतिक दलों को इस दायरे से बाहर रखने का कोई औचित्य नहीं है."
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल थे.
मुख्य न्यायाधीश गवई ने पूछा, "राजनीतिक दल किसी को रोज़गार पर नहीं रखते. ऐसे में किसी पार्टी को कार्यस्थल या दफ़्तर कैसे माना जा सकता है?"
उन्होंने कहा, "जब कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक दल से जुड़ता है तो यह रोज़गार नहीं होता क्योंकि उसे वेतन नहीं दिया जाता. इस याचिका को स्वीकार करना पैंडोरा बॉक्स खोलने जैसा होगा."
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निजी कंपनियां, विश्वविद्यालय, एनजीओ, मीडिया संस्थान और खेल संस्थान पॉश एक्ट के दायरे में आते हैं, लेकिन राजनीतिक दल इस क़ानून से बाहर हैं, जबकि उनमें लाखों महिला कार्यकर्ता सक्रिय हैं.
राजनीतिक दलों की महिला नेताओं का कहना है कि यौन उत्पीड़न से जुड़ी शिकायतों के निपटारे के लिए एक व्यवस्थित तंत्र होना ज़रूरी है.
पॉश एक्ट के अनुसार, किसी भी संस्थान में 10 से अधिक कर्मचारी होने पर आईसीसी बनाना अनिवार्य है.
अदालत का तर्क है कि राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं के बीच नियोक्ता-कर्मचारी का संबंध नहीं है.
लेकिन हक़ीक़त यह है कि कई लोग, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए काम करते हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उन्हें कर्मचारी माना जा सकता है और क्या राजनीतिक दलों के दफ़्तरों को कार्यस्थल की श्रेणी में रखा जा सकता है?
शोभा गुप्ता कहती हैं, "आज अधिकांश राजनीतिक दलों के अपने दफ़्तर हैं. पॉश एक्ट के अनुसार अगर कोई व्यक्ति अपने नियोक्ता के साथ बस में सफ़र कर रहा हो तो वह बस भी कार्यस्थल मानी जाती है. मूल रूप से इस क़ानून में 'कार्यस्थल' और 'पीड़ित महिला' की परिभाषा को व्यापक रखा गया है. इसलिए इस संदर्भ में पॉश लागू होना चाहिए."
याचिका में कहा गया है, "कुछ दल, जैसे सीपीआई(एम), ने स्वेच्छा से आईसीसी बनाई है, लेकिन अन्य दलों (जैसे बीजेपी, कांग्रेस, आप) में कोई समिति नहीं है. क़ानून की बाध्यता न होने से इसका पालन नहीं किया जाता. इससे महिलाओं के लिए असुरक्षा और उत्पीड़न को लेकर चुप्पी का माहौल बनता है."
सीपीआई(एम) की आईसीसी की चेयरपर्सन के. हेमलता ने कहा, "सीपीआई(एम) में पिछले चार साल से ऐसी समिति है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लैंगिक संवेदनशीलता पर हमने हाल ही में कार्यशाला भी कराई. हमारा मानना है कि अन्य दलों को भी ऐसी समितियां बनानी चाहिए."
सीपीआई(एम) के पोलित ब्यूरो सदस्य अशोक धवले ने कहा, "हमारी पार्टी की समिति को देशभर से शिकायतें मिली हैं. यह समिति पूरी तरह स्वतंत्र है. एक बार समिति कोई निर्णय ले लेती है तो पार्टी की कोई अन्य समिति उसे बदल नहीं सकती."
हमने यह जानने का प्रयास किया कि क्या अन्य दलों में भी ऐसी व्यवस्था मौजूद है.
इस पर शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) की उपनेता सुषमा अंधारे ने कहा, "संविधान के अनुच्छेद 14 (मौलिक अधिकार) के अनुसार भारत में रहने वाला हर व्यक्ति क़ानून के सामने समान है. राजनीतिक अपराधीकरण के बढ़ने के साथ महिलाओं को अधिक सुरक्षा की ज़रूरत है. कुछ दलों ने पॉश एक्ट के तहत आंतरिक समितियां बनाई हैं, लेकिन यह देखना ज़रूरी है कि वे वास्तव में कितनी प्रभावी हैं."
सुषमा अंधारे कहती हैं, "हम जैसी महिलाएं, जो बहुत ही पिछड़ी और अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि से आती हैं, उनके लिए राजनीतिक माहौल सुरक्षित नहीं है. मेरा मानना है कि हर पार्टी में आंतरिक समितियां होनी चाहिए, लेकिन उनकी स्वायत्तता का सवाल बरक़रार रहता है. ऐसे में महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय समिति बनाई जानी चाहिए, जिसमें सभी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों की महिला नेता शामिल हों."
क्या राजनीतिक काम अहम नहीं है?
राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रियंका भारती ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. अदालत का कहना है कि राजनीतिक दल कार्यस्थल या दफ़्तर नहीं हैं. लेकिन कई महिलाएं पार्टी अभियानों में लगातार काम करती हैं और बैठकों में हिस्सा लेती हैं. ऐसे में यह टिप्पणी उनके काम को नज़रअंदाज़ करने जैसी है."
जब आरजेडी में आईसीसी जैसी व्यवस्था के बारे में पूछा गया तो प्रियंका भारती ने जवाब दिया, "हम आईसीसी बनाने की प्रक्रिया में हैं और जल्द ही इसे स्थापित करेंगे. अभी मुझे नहीं पता है कि हमारी पार्टी में ऐसी कोई समिति पहले से मौजूद है या नहीं."
सीपीआई(एम) की पोलित ब्यूरो सदस्य मरियम धवले ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट भले ही राजनीतिक दलों को दफ़्तर न मानता हो, लेकिन वे एक व्यवस्थित ढांचे में काम करते हैं. उनके राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तर पर दफ़्तर हैं. इन व्यवस्थाओं में काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला राजनीति में महिलाओं की सुरक्षा के सवाल को और गंभीर बना सकता है."
क्या कहते हैं आंकड़े ?
यूएन वीमेन (2013) और इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन (2016) के अध्ययनों में बताया गया है कि राजनीति में महिलाओं को बड़े पैमाने पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
भारत में हुए सर्वे के अनुसार, 45 फ़ीसदी महिला राजनेताओं ने शारीरिक हिंसा और 49 फ़ीसदी ने मौखिक दुर्व्यवहार का अनुभव किया.
इसका असर यह होता है कि कई महिलाएं शिकायत दर्ज कराने या राजनीति में सक्रिय भागीदारी से हिचकती हैं.
दक्षिण एशियाई देशों पर आधारित इस अध्ययन में यह भी सामने आया कि राजनीति में महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ता है, इसका मकसद उन्हें दबाना या उनकी राजनीतिक गतिविधियों को नियंत्रित करना होता है.
इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन के एक सर्वे में बताया गया कि 82 फ़ीसदी महिला सांसदों को मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. इसमें यौन शोषण से जुड़ी धमकियां और अभद्र टिप्पणियां भी शामिल थीं.
भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अब भी सीमित है. पीआरएस इंडिया के आंकड़ों के अनुसार, लोकसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 14 फ़ीसदी है.
2024 में कर्नाटक की जनता दल (सेक्युलर) के पूर्व सांसद प्रज्वल रेवन्ना के ख़िलाफ़ यौन शोषण और बलात्कार के कई मामले दर्ज हुए. अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुनाई.
2025 में कांग्रेस विधायक राहुल मामाकूटाथिल को निलंबित कर दिया गया. उन पर कई महिलाओं और एक ट्रांसजेंडर ने ऑनलाइन ताक-झांक और उत्पीड़न के आरोप लगाए.
इस मामले में केरल पुलिस ने स्वतः संज्ञान लेकर केस दर्ज किया.
ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस इंतज़ाम नहीं होंगे तो उनकी राजनीतिक भागीदारी प्रभावित हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा याचिका ख़ारिज किए जाने के बाद यह सवाल उठा कि क्या राजनीति में महिलाओं के लिए कानूनी रास्ते बंद हो गए हैं? इस पर विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया, "बिलकुल नहीं, यह सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फ़ैसला नहीं है.
राजनीतिक दलों को पॉश एक्ट के दायरे में लाने के लिए नई याचिकाएं दायर करने का रास्ता अब भी खुला है. यह लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है, महिलाओं को निराश होने की ज़रूरत नहीं है."
उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि पॉश एक्ट को लेकर सार्वजनिक बहस और जागरूकता बढ़ाना ज़रूरी है.
इसके साथ ही इसे प्रभावी तरीक़े से लागू करवाने के लिए अधिक लिखित सामग्री और संसाधन उपलब्ध कराने होंगे, ताकि समाज में इसके प्रति समझ और जागरूकता बढ़ाई जा सके.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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